भारतीय सिनेमा में आजादी की लड़ाई और बंटवारे की ऐतिहासिक घटनाओं के इर्द-गिर्द कई फिल्मों की कहानियों को रचा और गढ़ा गया है। आजादी के 75वें साल में ऑस्कर लाने वाली तेलुगु फिल्म आरआरआर की कहानी भी ब्रिटिश राज और अंग्रेजी हुकूमत से टकराव पर आधारित थी।
बंटवारे का दर्द भी कई कहानियों में समेटा गया। मगर, देश जब आजादी की दहलीज पर खड़ा था तो इन कहानियों को पर्दे पर उतारने वाली फिल्म इंडस्ट्री के अंदर क्या चल रहा था, इसकी सुनहरी और स्याह झलक दिखाती है अमेजन प्राइम वीडियो की ताजा सीरीज जुबली।
आजादी के बाद पचास और साठ का दशक भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग इसलिए भी कहा जाता है, क्योंकि इस दौर में सिनेमा ने अंगड़ाई लेना शुरू किया था।
पश्चिमी सिनेमा के प्रभाव, फिल्मों में तकनीक के विकास, देश के बदलते मिजाज और नयी चुनौतियों ने फिल्मों से अपेक्षाओं को बढ़ा दिया था, क्योंकि तब इसे जनता से संवाद का सबसे असरदार और सीधा माध्यम माना जाता था। देश को दिशा देने में जुटे राजनेता फिल्मों के जरिए अपने विचारों को जनता तक पहुंचाना चाहते थे।
जुबली हिंदी सिनमा के इसी ट्रांसफॉर्मेशन को रोमांचक शैली में पेश करने के साथ इसके स्याह पक्ष को भी बिना लागलपेट उजागर करती है, जिसमें साजिशें, मौकापरस्ती, पैसे की हवस, धोखा, मक्कारी और सफलता के लिए किसी भी हद से गुजरने की चाहत नजर आती है।
कहानी 10 एपिसोड्स में फैली है। पहले पांच एपिसोड्स स्ट्रीम कर दिये गये हैं। एक एपिसोड की अवधि लगभग एक घंटा है। आगे के एपिसोड्स 14 अप्रैल को स्ट्रीम किये जाएंगे। मगर, पहले पांच एपिसोड्स ने जुबली के लिए स्टेज सेट कर दिया है।
क्या है जुबली की कहानी?
कहानी 13 जुलाई 1947 में शुरू होती है। आजादी की तारीख से लगभग महीनाभर पहले। इंडस्ट्री की सबसे बड़ी फिल्म निर्माण कम्पनी रॉय स्टूडियोज कर्ज में डूबी है। कम्पनी को एक ऐसे सुपरस्टार मदन कुमार को क्रिएट करने की जरूरत है, जिसके लिए जनता की दीवानगी दौलत का अम्बार लगा दे।
ऑडिशन के बाद कम्पनी के मालिक श्रीकांत रॉय (प्रोसेनजित चटर्जी) की तलाश जमशेद खान (नंदीश संधू) पर खत्म होती है। अखबार में खबर छपवा दी जाती है कि स्टूडियो की अगली फिल्म संघर्ष से नया स्टार मदन कुमार (नंदीश) लॉन्च होगा।
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श्रीकांत को जमशेद खान और सुमित्रा के प्रेम प्रसंग से कोई एतराज नहीं है, क्योंकि इन दोनों पर उसकी फिल्म संघर्ष और स्टूडियो का भविष्य टिका है। जमशेद थिएटर का अभिनेता है और फिल्म उसकी प्राथमिकता नहीं है।
श्रीकांत जल्द से जल्द जमशेद को मदन कुमार बनाकर फिल्म लॉन्च करना चाहता है। वो अपने विश्वासपात्र स्टूडियो कर्मी बिनोद दास (अपारशक्ति खुराना) को जमशेद और सुमित्रा को बुलाने के लिए भेजता है। बिनोद, सुंदर नाम का फैन बनकर जमशेद से मिलता है और उसे फिल्म करने के लिए कन्विंस करने की कोशिश करता है।
इस बीच लखनऊ में दंगे शुरू हो जाते हैं और इनमें जमशेद मारा जाता है। बिनोद उसे बचा सकता था, मगर खुद मदन कुमार बनने की ख्वाहिश दिल में दबी होने के कारण पीछे हट जाता है। मदन कुमार का मारा जाना रॉय के लिए बड़ा झटका था।
उसे बिनोद की कारगुजारी का पता चल जाता है, मगर एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद बिनोद की संवाद अदायगी देख वो उसे मदन कुमार बनाकर लॉन्च करने का फैसला करता है।
फाइनेंसर शमशेर वालिया (राम कपूर) इसका पुरजोर विरोध करता है, मगर रॉय किसी की नहीं सुनता। सुमित्रा कुमारी के साथ मदन की लांचिंग होती है। फिल्म सुपरहिट हो जाती है और बिनोद सुपरस्टार मदन कुमार बनकर स्टाफ क्वार्टर से स्टार क्वार्टर में 500 रुपये महीने की तनख्वाह पर शिफ्ट हो जाता है।
इस कहानी में एक प्रमुख पात्र है जय खन्ना (सिद्धांत गुप्ता), जो जमशेद का दोस्त है। उसके पिता नारायण खन्ना (अरुण गोविल) कराची में मशहूर थिएटर कम्पनी के मालिक हैं। जमशेद फिल्में छोड़कर इसी थिएटर कम्पनी से जुड़ने वाला होता है।
उधर, बंटवारे के बाद जय का परिवार मुंबई के सायन इलाके में बने रिफ्यूजी कैम्प में शरण लेता है। आजीविका के लिए हाथ-पैर मारते-मारते जय अपनी लिखी स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाना चाहता है।
कुछ घटनाक्रमों के बाद वो पहले से परिचित मदन कुमार को फिल्म में काम करने के लिए मना लेता है। मदन कुमार के आने से फाइनेंसर वालिया भी पैसा लगाने के लिए तैयार हो जाता है।
फिल्म की हीरोइन के लिए लखनऊ से मुंबई पहुंची तवायफ नीलूफर कुरैशी का चयन किया जाता है, जिससे जय लखनऊ में मिल चुका होता है।
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कैसी है पूरी सीरीज?
जुबली देखने वाले को हिंदी सिनेमा के गोल्डन पीरियड में खींच लेती है। हां, कहानी की मुख्यधारा के साथ बंधे कुछ सब प्लॉट ज्यादा होने की वजह से सीरीज कहीं-कहीं उलझाती जरूर लगती है, मगर कलाकारों की अदाकारी और दृश्यों सारी कमियों को ढक देते हैं।